Friday, August 24, 2012

हरनाथपुर वाया कोलकाता


हरनाथपुर वाया कोलकाता -1
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घर के पुराने कोने में नाखून से खुरचकर लिखा
तुम्हारे नाम पर मिट्टी के लेप चढ़ गए
खेत में जो कनबाली छुपाई थी तुम्हारी
वहीं से एक रास्ता गुजरता शहर की ओर जाता है

नहीं रहे बेर के पेड़
जामुन का पेड़ ढह गया पिछली आंधी में
अब नहीं लड़ता कोई अपने-अपने आम के पेड़ के लिए

दो साल पहले  बिके थे छबीस आम के गांछ
महुए के दो पेड़
अब वहां बन गए हैं घर
अब उस माटी तक पहुंचना भी नामुंकिन

छब्बीस साल पहले  जब आया था कोलकाता
मुंह में भोजपुरी और देह में खेत की माटी के साथ
तुम्हारे साथ रोई थीं वे गलियां
जहां हम कांच की गोलियां खेला करते

बार-बार लौटा मैं वहीं शब्दों और कविताओं से दूर
जहां फिर से कुछ भी नहीं मिलना था

मैं बहुत बार गया हरनाथ पुर
लेकिन दूसरी बार कभी नहीं जा सका  तुम्हारे ससुराल कुछ कोस की ही दूरी पर

तुम्हे खोजता रहा आज तक
उसी मिट्टी में जिसके निशान अब बाकी नहीं....।









                              (2)

डूबती सांसे कहीं कोई नहीं
इस शहर के एक मकान की चौथी मंजिल के कमरे में जिसकी किस्त खत्म होने का नाम नहीं लेती
पिता की याद आती है तो उनके बड़े हाथ याद आते हैं जो डराते थे और रास्ता दिखाते थे
मां बीमार है गांव से फोन आया है यह वही मां है जिसे 
पहली बार मां कहा था और रोटी की तलाश में उससे दूर इस नगर में आ बसा था जिसकी जबान अबतक मेरी समझ में नहीं आती 

पिता को पिता कहने में अब साहस की जरूरत होती है
मां का चेहरा अब मां की तरह नहीं लगता
मैं अंधेरे में बैठ कर रोता हूं रात भर मुझे चुप कराने कोई नहीं आता मैं बहुत गुस्से में हूं मैं बहुत नाराज हूं इतिहास की अंधी सुरंगों से चलकर आजी नहीं आती मनाने जो सिर्फ मुझे मनाने के लिए आती थी और वही एक थी जो मुझे फिर-फिर दुनिया में लौटा सकती थी

जिस बहन की गोद में खेलकर बड़ा हुआ उसके सारे बाल सफेद हो चुके हैं वह अक्सर खून की कमी से जुझती रहती है उसकी चार बेटियां है और उसका पति मुंबई चला गया है वह साल दो साल में एक बार लौटता है उसके पास मेरी उस बहन के लिए दुख के अंतहीन क्षणों के सिवा और कुछ नहीं है

मेरे सारे खेत परती पड़े हैं जिसे बचपन में बाबा के साथ पटाता था जिसमें गेहूं की बालियां लगती थीं चने के साग होते थे तिलहन के फूल खिलते थे खेत वे मेरे देखते हैं हसरत भरी निगाह से मुझे चिन्ह जाते हैं मेरे माथे पर बल है मुझे चक्कर आ रहे हैं मैं मनुष्य से एक चलती-फिरती लाश में तब्दील हो गया हूं

तीन फेंड़वा के तीनों पेड़ गिर गए तेलहिया, घिवहिया और हथिया आम अब कब मिलेंगे खाने को किसी से कहूं तो कैसे कहूं कि मैं चाहता तो वे तीनों पेड़ बच सकते थे और एक दिन अपने बच्चों को दिखाकर कह सकता था कि देखो इस पेड़ के नीचे खाट पर मैं सोता था खूब तेज लू में भी और मिट्टी की सुराही का पानी पीते हुए इनकी रखवाली करता था।

बोझ से दबी सड़कों पर चलता हूं और उम्र से ज्यादा बूढ़ा दिखते हुए चिल्ला रहा हूं अपने पुरखों के नाम अपने गांव की नदी और अपने खेतों के नाम और अपने दोस्तों के नाम जो रोजी की तलाश में बहुत पहले छोड़ गए अपना जवार खेत बधार

मेरी कविताओं में लिखे कई शब्द रात भर मुझे सोने नहीं देते एक नदी हर रोज विलखती है मेरी नींद के अंधेरे में बहती हुई कहीं मैं रोज सुबह दौड़ लगाता हूं ताड़ भर अपने गांव की नदी तक पहुंचने को और खुद को फाइलों के बीच पाता हूं कलम घिसता आखिरी लोकल पकड़ने के लिए बेतहासा भागता बस की छड़ पकड़कर यात्राएं करता

हुगली नदी में रोज एक आदमी छलांग लगाता है जेटी से और बचकर निकल आता है और यह क्रम सदियों से चला आ रहा है 
तब से जब जॉब चारनाक नहीं हुए थे

कोलकाता एक जादू है 

जादू एक भंवर है भंवर में फंसी है मरी सांसे और मेरा अब तक का देखा हुआ समय मेरी ढेर सारी अधूरी कविताएं, अधूरी प्रार्थनाएं अधूरे वादे अधूरी हंसी अधूरे गीत और अधूरे प्रेमपत्र ....

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